Saturday, December 19, 2009

"समझें वैसे,हम हैं जैसे"

हाँ तो आज PUT ख़त्म हुआ,और अब सेमेस्टर इग्जाम्स की बारी है. PUT की वजह से मैं अपनी एक नई कविता यहाँ पोस्ट कर पाने में सक्षम न हो सका सो आज यहाँ उसे लेकर उपस्थित हूँ.
                                                                 बात कुछ ऐसी है कि इस बीच मेरे एक सीनियर ने मुझसे कुछ ऐसा लिखने को कहा जो कि तूफान ला दे; फिर तो मुझे शुभद्रा कुमारी चौहान कि ये पंक्तियाँ अचानक याद हो आईं...


"भूषण अथवा कवि चन्द्र नही
बिजली  भर दे   वो छंद   नही
अब कलम बंधी स्वक्छंद नही
फिर कौन  बताये   कौन   हंत
वीरों का    कैसा    हो    बसंत"
                            शुभद्रा कुमारी चौहान

ये बात तो है कि मेरी कलम बंधी नही है,लेकिन ऐसा क्या कुछ लिख दूँ जो बिजली भर दे तूफान ला दे और उसमे भी ऐसे समय में जब मेरे पास इसके लिये ज्यादा कुछ सोचने का टाइम भी नही था. लेकिन फिर भी मै उन्हें यह आश्वाशन दिया कि शाम तक कुछ लिखने का प्रयाश करूँगा. ज्यादा सोचने के बजाय मैंने एक विशुद्ध भारतीय सोच जो कि मेरे दिलो दिमाग में बसता है को सब्दों में व्यक्त करने का प्रयाश किया जो कि कुछ ऐसे बन पड़ा...

"चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं"
हम शांति के दूत रहे हैं शांति हमको प्यारी है
बुद्ध ने जो सन्देश दिया वो अब भी यहाँ से जारी है
रूप न देखो सज न देखो दिल से देखो कैसे हैं
चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं


विश्व एक है धर्म एक है सोंच लिये हम बैठे हैं
ही जानते दुनिया वालें क्यों हमसे कुछ ऐठें हैं
रूप न देखो साज न देखो दिल से देखो कैसे हैं
चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं

जिनने भी है हाथ मिलाया हमने उनका साथ निभाया
दो-दो हाथ किया है उससे जो जो है हमसे टकराया
दूर से सायद समझ न पाओ पास आ देखो कैसे हैं
चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं

गद्दारों ने था जब हाथ बढाया हमने था तब हाथ मिलाया
सशंकित थे हम तब भी पर संस्कृति साथ थी न ठुकराया
पर याद रहे उन्हें उनके खातिर हम क्रांति पाले बैठे हैं
चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं

आह्वान है युवा शक्ति को जग को अपनी क्षमता दिखला दें
भ्रम फैला है जग में जो भी अपने सामर्थ्य से उसे मिटा दे
कर विष्फोट सुना दें सबको हम भारत वाशी कैसे हैं
चाहत है दुनिया हमको समझे,बस वैसे हीं हम जैसे हैं

" समझ सके न जो अबतक वो अब समझें
सोंचे दिलो दिमाग से और फिर तब समझे
कल ग़लतफ़हमी में रास्ते हो अलग हमारे
उससे पहले तक तो हमको वो समझें"

उपरोक्त भाव विभिन्न देशों से भारत के अब तक के रिश्तों को लेकर आये जिन्हें मैंने शब्दों का रूप दिया. वैसे अपने पडोसी देश पाकिस्तान के लिये कुछ अलग ही भाव रखता हूँ और वो डा.कुमार विश्वाश की इन पंक्तियों से शब्दसः मेल करती हैं...
"मैं उसका हूँ वो इस अहसास से इंकार करता है
भरी महफ़िल में भी रुसवा मुझे हर बार करता है
यकीं है सारी दुनिया को खफा है मुझसे वो लेकिन
मुझे मालूम है फिर भी मुझी से प्यार करता है"
                                                   डाँ. कुमार विश्वास

इन पंक्तियों को पहली बार सुन कर ही ऐसा लगा जैसे ये मेरे अपने उदगार हों और इसी लिये मैंने शब्दसः इन्हे लिख डाला. पडोसी देश या फिर यूँ कहें की अपना सगा भाई पाकिस्तान, आमेरिका और चीन से चाहे जितनी भी सहायता पा ले या फिर वे चाहे जितना भी अपनापन दिखला लें लेकिन इन लोगों की नीति और रीति उसे भली भांति पता है. मुझे दुःख इस बात का है कि सबकुछ जन समझकर भी पडोसी इतना अनजान क्यों बना हुआ है? मै ये मान सकता हूँ कि आज पिकस्तान कि जिन गलत कामों में संलिप्तता जताई जा रही है उसमे वहाँ रह रहे कुछ लोगों का हाथ है लेकिन ये बहुमत कि इच्छा है ये बात कदापि स्वीकार करने के लायक नही है. आज के लिये बस इतना ही.
धन्यवाद"

1 comment:

Udan Tashtari said...

लगभग तूफान आया ही समझिये आपकी लेखनी का....बस, जरा ’स’ और ’श’ के इस्तेमाल में सजगता बरतिये.

शुभकामनाएँ लिखते रहें.