Tuesday, March 1, 2011

"एक मुलाकात डा. कुमार विश्वास और जाकिर अली रजनीश जी के साथ"



पिछले शुक्रवार यानि २५-०२-२०११ को हिंदी साहित्य को समृद्ध और लोकप्रिय करने में लगे दो व्यक्तियों से एक साथ मिलने का  मौका मिला. समय था कानपुर  इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलाजी में चल रहे तकनीकी  और सांस्कृतिक कार्यक्रम २०११ का दुसरा दिन .
एक तरफ जाकिर अली रजनीश जो की अबतक प्रकाशित लगभग ६५ किताबों के साथ बाल साहित्य और वैज्ञानिक विषयों पर कलम दौडाते रहे हैं तो दुसरी तरफ डा.कुमार विश्वास अपनी हिन्दी कविताओं  के माध्यम से युवा वर्ग के दिलो दिमाग में बस चुके हैं.
आइये सबसे पहले बात करते हैं डा. कुमार विश्वास के साथ हुई  एक छोटे मुलाकात की......
मिलने की चाहत तबसे थी जब पहली बार "कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है" सुना था. सम्पर्क का माध्यम  बना मेरे ब्लॉग मेरी अन्तराभिव्यक्ति के एक पोस्ट पर इनका एक कमेन्ट जो की अंततः मुलाकात तक का  कारण बना. जब हम लोग विश्वास जी से मिलने पहुचे तो वे टी.वि पर न्यूज देख रहे थे और समकालीन न्यूज पे अपना कमेन्ट दे रहे थे. औपचारिक मुलाकात के बाद वे परफार्मेंस देने जाने की तैयारी में लग गए और बीच-बीच में कुछ -कुछ पुछते और हमारे प्रश्नों का जवाब देते रहे. शक्ल से खुशमिजाज और सरल दिखने वाले विश्वास जी वास्तविक जीवन में भी कुछ ऐसे ही लगे. मेरे एक प्रश्न की आप लगभग कितने देर तक परफार्म करना पसंद करेंगे के जवाब में उन्होंने बड़ी सरलता से कहा की "जबतक odiens चाहेगी". अंततः हुआ भी कुछ ऐसा ही.तालियों के गडगडाहट के बीच वो दो घंटे से ज्यादा देर तक स्टेज पे रहे. एक प्रश्न के जवाब में की युवा उनको सुनना क्यों पसंद करते हैं उन्होंने कहा"  एक समय था जब कवि सम्मेलनों में जाने वालों की औसत उम्र ५० साल हुआ करती थी. ये मेरा अहंकार नहीं बल्कि मेरा आत्मविश्वास बोल रहा है कि आज कुमार विश्वास का नाम सुनते ही  ये २० साल हो जाती है. मैंने उनको वो सुनाने का प्रयास किया है जो की मैंने खुद महसूस किया है. मेरे पास, मेरी कवितावों में उन्हें कुछ अपना सा लगता है इसलिए सुनने आते हैं". मोबाइल, लैपटॉप पे कवितायेँ सुन कर वाह वाह करने से अलग उन्हें सामने सुनकर वाह-वाह करने का आनंद सुखद रहा.
अब बात करते हैं जाकिर अली रजनीश जी की. कार्यक्रम थोडा लंबा खिंच गया लेकिन ऐसे में भी अपनी यात्रा के थकन के बावजूद रजनीश जी ११.१५ तक हम लोगों के साथ रहे. ढलती रात को देखते हुए मैंने सुबह में उनसे मिलने का मन बनाया और उन्हें होटल तक छोड़ने को सोचा. जब मैंने उनके साथ होटल तक जाने की बात की तो उन्होंने बड़ी सरलता से यह कहते हुए मना कर दिया की कहा परेशान होओगे कल सुबह मिल लेंगे अभी मै अकेले ही चला जाऊंगा. सुबह लगभग ८.३० बजे जब मै पवन मिश्रा सर के साथ  होटल पहुंचा तो ये चाय की चुस्कियां ले रहे थे. बातों बातों में इन्होंने बताया की उनकी लगभग ६५ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं,साथ ही पराग,नंदन जैसी पत्रिकावों में ६०० से ज्यादा कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. मुझे सबसे अच्छी बात लगी रजनीश जी की खुद की विकसित की गई लिपि  जिसे की उन्होंने अपने कालेज के समय में खुद से विकसित  किया था.  रजनीश जी ने अपने डायरी के पन्नों पर उकेरी टेढ़ी मेढ़ी लाइनों को दिखाते हुए बताया की "मै खुद की बने इस लिपि में ज्यादा सहज महसुस करता हूँ और केवल मै ही इसमें लिख और पढ़ सकता हूँ". मेरे और पवन सर के साथ हुए बातचीत के दौरान हम लोगों ने,जाति,धर्म,.विज्ञान ,राजनीति  आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा की. 
अंततः समय के पाबंद हम लोग अपने-अपने रास्ते पर निकल तो लिए लेकिन मुलाकात के बाद ब्लॉग और मेल तक का यह संबंध अब भावनात्मक रिश्तों का रूप ले चूका है और इसे जाकिर अली रजनीश जी ने भी अपने एक पोस्ट के  माध्यम से जाहिर किया है.

3 comments:

palash said...

congratulation for organizing such a good program in the KIT campus , while you was not well due to accident ..
i wish good luck for you ..

sarvesh said...

i miss your function.....
Iski video clip mujhe de dena dear...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

किसी और के बहाने अपने आप से मिलने का भी अलग मजा होता है। शुक्रिया।

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पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?