पहले की तरह इस बार भी परीक्षायें खत्म हुई तो ब्लागिंग का शौक पूरा करने ब्लाग जगत में पहुँच गया। हाल मे ही खत्म हुए दशहरा पूजा के अलावा कालेज मे नवागन्तुकों के स्वागत मे आयोजित उदभव से जुडी यादें भी अभी यथावत बनी हुई हैं, जिन्हे की आप सब तक पहुँचा सकता हूँ । लेकिन आज कुछ ही दिन पहले की अपने यात्रा से जुडी कुछ यादों के साथ-साथ उपरोक्त कार्यक्रमों की तस्वीरें पोस्ट करने का मन पह्ले से ही बनाये बैठा हूँ। और फ़िर तस्वीरे भी तो बोलती है? अतः कार्यक्रमों की जानकारी उन्ही से ले लीजियेगा.
हुआ यूँ कि दशहरे और दीपावली मे घर न जा पाने की स्थिति को पहले ही भाँपते हुए मैं मौके से मिली दो छुट्टीयों और रविवार महोदय की असीम अनुकम्पा को देखते हुए नवरात्रि के प्रारंभ मे ही घर जाने का मन बना डाला, ट्रेन मे सीट भी आरक्षित कर ली गई। आदत से मजबूर मै निश्चित समय से दो घन्टे पहले ही यह सोचकर छात्रावास से निकल लिया ताकि निर्धारीत समय से थोडा पहले ही स्टेशन पहुच सकूँ। समय से मिल गई आटो ने लगभग आधे घन्टे मे ही स्टे्शन पहुंचा दिया। अब शुरु हुआ इन्तजार का सिलसिला। जब निर्धारित समय के एक घन्टे बाद तक ट्रेन नही आई तो मैं कुछ दोस्त मित्रों और करीबियों को फ़ोन कर भारतीय रेल के महान परंपरा का गुणगान प्रारंभ किया और उनसे सहानुभूति लेने लगा। किसी की सहानुभूति काम आई और लगभग दो घन्टे की देरी से ट्रेन ने दस्तक दी। कुल मिलाकर लगभग चार घन्टे तक स्टे्शन पर बिताने के बाद ट्रेन के आने की खुशी मेरे चेहरे पे देखी जा सकती थी। आनन-फ़ानन में ट्रेन में सवार हो अपनी निर्धारित सीट पर पसर गया।
अब मुद्दे की बात, की यात्रा खास क्यों थी? यात्रा के दौरान क्या करना है? और क्या नही? से संबंधित ढेर सारे टिप्स मिलते रहे हैं | जैसे क्या खाना है? क्या नहीं, किससे बात करनी है? किससे नही, कैसे उतरना?, कैसे चढना? और तो और किसे देखना और किसे नही? सबकुछ ध्यान मे रखते हुए मैने बैग से हेडफ़ोन निकला, एक हिस्सा मोबाइल महाराज की शरण मे दे दूसरे हिस्से को कान मे लगा देश दुनिया से बेखबर हो जाने का प्रयास करने लगा।
गाने बदल रहे हैं, सामने की बर्थ पर लगभग एक पांच वर्षीय लड़की उम्र मे अपने से दो-तीन साल बडे भाई से नोंक-झोंक कर रही है…….
-पर मुझे क्या करना है? गाना बदल दिया.......
-कुछ अनसुना सा लग रहा है, शायद किसी नई फ़िल्म का है!
-अच्छा नही लग रहा!!!!!!!!!
-इसे भी बदलते है, हां अब अच्छा है।
-लड़की भाई से उलझना छोड बर्थ के बीच मे बैठ गई है, शायद मेरी तरफ़ देख रही है@
-पर मुझे क्या? मै क्यों देखने जाऊ? पता नही किसको आपत्ति हो जाये ?(वैसे भी लोग आजकल जाने कब? किस बात पे? कैसे और क्यों? बिना कुछ सोचे नाराज हो जाएँ )
-वो अब भी देख रही है………
-कोई दिक्कत तो नही? कुछ कह तो नही रही? (गाने पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहा हूँ)
-वो अब भी इधर ही……………………….
-छोडो जाने दो, जिसको जो सोचना हो सोचे, शायद कुछ पूछ्ना या बताना चाह्ती है…..
-एक लम्बी सी मुस्कान, ऐसा लग रहा जाने कितना पुराना परिचय हो...
-गाने सुन रहे हैं क्या ?
-हाँ , तुम्हे भी सुनना है ?
इधर-उधर देखकर कोई उत्तर नही, मैने फोन से हेडफ़ोन निकाला और आवाज थोडी तेज कर दी। वो बहुत खुश है, बार-बार चेहरे की तरफ़ देखती है और मुस्कराती है | मै भी उसके कुछ उलजलूल बातों का ढुलमुल उत्तर दीये जा रहा हूँ |
-आपको नींद नही आ रही ? अब मै सोने जा रही हूँ|
समझ नही पाया की बता रही है ? या फ़िर पूछ रही है !
मैंने भी मौन स्वीकृति में सर हिला मुस्करा कर सो जाने का इशारा किया। जानने की उत्सुकता हुई क्या वास्तव मे सो गई ? जवाब हां था। यात्रा के दौरान सोने की आदत वैसे भी नही है। मैने बैग से डायरी और कलम निकला और जो भाव आते गये पन्नों पर उकेरता चला गया, कुछ ऐसे…
सोचता हू,
तुम्हारे इस मासूम और निश्छल हँसी का राज
लगता है,
उम्र छोटी है तेरी
तू अनजान है दुनिया के नीतियों से
दुनियादारी और ऊंची-नीची बातों से
नही जानती हो छ्ल कपट की दुनिया को।
कल जब तुम हो जाओगी बड़ी
छीन ली जायेगी तुम्हारी
कुछ इस तरह की निश्छल हँसी
भर दी जायेंगी ढेर सारी उल्टी-सीधी बातें
तुम्हारे दिमाग मे
निश्चय ही दी जायेंगी कुछ ठोकरें
जो तुम्हे बना देंगी कठोर
रोकेंगी कुछ ऐसा कर पाने से।
हिम्मत भी करोगी कुछ ऐसा करने को
पर रहेंगी चिन्तायें तेरे मष्तिक मे की
कही कुछ ऐसा न हो?
कही कुछ वैसा न हो?
है मुझे पता की समय साथ छीन जायेगा तेरा ये भोलापन
पर सौ बार ये मन्न्त करता हू कि खुदा बचाये तेरा बचपन।
पोस्ट बहुत बडी हो गई। यह यात्रा इसलिये भी यादगार है कि अबतक के जीवन मे पहली बार स्टेशन पे दस मिनट पहले पहुंचा। यदि थोडी जल्दीबाजी नही की होती तो अगले स्टेशन पर उतरना पड्ता |
धन्यवाद"
Saturday, October 23, 2010
Tuesday, September 14, 2010
"हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं"
कोई भी दिवस मनाने का मुझे बस एक लाभ समझ में आता है कि वह दिवस जिससे सम्बंधित होता है, हम उसे भूल नहीं पाते हैं. शायद इसके और भी बहुत सारे लाभ होते हों और उपरोक्त बात मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच को दर्शाती हो लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा की हिन्दी दिवस मनाने की बात मुझे अक्सर खटकते रहती है. मेरे विचार से हिन्दी जो कि मात्र एक भाषा नहीं बल्कि राष्ट्र भाषा है उसे भूल जाने या फिर उसे याद करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ? अपनी कुछ इन्ही बातों को दर्शाने के उद्देश्य से मैंने आज कुछ ऐसा लिखा.......
हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं
शायद कोई गुन्जाईस है भूल जाने की इसे
इसलिए इसे याद कर हम मानस पटल पर ला रहे हैं
हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं |
जो हिन्दी सम्पूर्ण भारत के राज-काज और समाज की भाषा होना चाहिए उसके समृद्धि के लिये हम आज हिन्दी दिवस मना रहे हैं. जिस हिन्दी को प्रत्येक भारतीय को एक दुसरे से जोड़ने का माध्यम होना चाहिए, जो हिंदुस्तान की धड़कन होनी चाहिए उसके समृद्धि के लिये सेमिनार और गोष्ठियां आयोजित की जा रही हैं. अपनी संस्कृति और अपने भाषा के सहारे आज अमेरिका,जापान,चीन इत्यादी देश बुलंदियों को छू रहे हैं और हम हैं कि समूर्ण भारत को एकता के एक सूत्र में पिरोने के लिये हिन्दी को सर्व समाज कि भाषा मानने के बजाय विभिन्न भाषाओँ के साथ इसका सामंजस्य बैठने की कोशिश कर रहे हैं. अपने कुछ एक प्रश्नों पर आप सबके विचार जानना चाहूँगा कि..................
२. जब इसे राष्ट्र भाषा घोषित किया गया है तो फिर सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये एक अनिवार्य भाषा क्यों नहीं ?
३. राष्ट्र भाषा के नाम पर ओछिं राजनीति क्यों और फिर ऐसा करने वालों के विरुद्ध सख्त कानून क्यों नहीं?
सीधे तौर पर यह बात कहने से परहेज करता हूँ कि हिन्दी का विकास नहीं हुआ या फिर इसका विकास नहीं हो रहा लेकिन जब यथोचित विकास की बात करें तो फिर इसे सहर्ष स्वीकार करना होगा की इसे वो स्थान अबतक नहीं मिल सका है जो इसे मिलना चाहिए. बातें अभी और भी हैं लेकिन आज के लिये बस इतना ही.

(सभी फोटोग्राफ्स गूगल सर्च इंजन से साभार)
धन्यवाद"
Sunday, September 5, 2010
"शुभकामनायें और कुछ और भी"
आज कुछ लिखने की शुरुआत करने से पहले सभी शिक्षकों को इस दिवस की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं. सबसे पहले तो डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन सरीखे लोगों के लिये लिखी अपनी ये पंक्तियाँ लिखता चलूँ कि..............
कल भी कुछ कर गये थे वे , वे अब भी कुछ कर जाते हैं
कल काम से कुछ कर गये थे वे अब नाम से कुछ कर जातेहैं
किसी पोस्ट के माध्यम से तो नहीं लेकिन मुझे ऐसा लगा की अशोक चक्रधर जी का सीधा -साधा पात्र चकरू नई शिक्षा व्यवस्था को देखकर भी जरुर चकरा जाता होगा. इस बार चकरू की परेशानियों को मैंने कुछ ऐसे सामने लाने का प्रयास किया है.................
क्यों न चकरू चकराए चक्रधर भाई
नई शिक्षा व्यवस्था में है नई बीमारी आई
है नई बीमारी आई दीखते सब पीड़ित हैं भाई
कही छात्र लिये बैठे सिगार और कही गुरु कर रहे पढाई
चकरू चतुर हैं रहे नहीं, न चिकनी बात कभी है बनाई
दुनियादारी और छल कपट इनको नहीं सुहाई
है इनको नहीं सुहाई अतः बात सीधे है बताई
दोनों मिलकर दे सकते जग को नव ऊर्जा और तरुणाई
कहें हर्ष सहर्ष सुनें सब गुरुजन, प्रियजन और भाई
गुरु रहेगा गुरु, शिष्य-शिष्य रह जाई
अपनी-अपनी सीमा की पहचान जो इनको आई.
समय और वातावरण से तो ताल्लुक नहीं रखती लेकिन आज की लिखी हुई अपनी कुछ एक और पंक्तियाँ भी आज यहाँ लिखता चलूँ..................
भरे पेट अपना चाहे जैसे भी हो
पता न चलता रोग कहाँ और कैसी ये लाचारी है,
दो समय की रोटी जुटा हीं पाना लक्ष्य यदि है जीवन का
तो फिर सच है की पशुओं का जीवन भी हमपे भारी है .
भारत और भारतीय सोच को दर्शाती ये पंक्तियाँ भी कि...........
बसा जो हो अपना घर तो हर घर न्यारा लगता है
प्यार जो हो अपने दिल में तो हर दिल प्यारा लगता है,
कुछ ऐसी हीं खास बात है हम भारत वासी लोगों में
दुश्मन चाहे लाख सताए हमको प्यारा लगता है.
अंततः एक बार फिर से शिक्षक दिवस की ढ़ेर सारी शुभकामनायें. शिक्षक दिवस और हाल में ख़त्म हुए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से सम्बंधित फोटोग्राफ्स के लिये इंतजार कीजिये अगली पोस्ट का क्योंकि अभी पोस्ट कर पाना संभव नहीं हो पा रहा. आज के लिये बस इतना ही............
धन्यवाद"
कल भी कुछ कर गये थे वे , वे अब भी कुछ कर जाते हैं
कल काम से कुछ कर गये थे वे अब नाम से कुछ कर जातेहैं
किसी पोस्ट के माध्यम से तो नहीं लेकिन मुझे ऐसा लगा की अशोक चक्रधर जी का सीधा -साधा पात्र चकरू नई शिक्षा व्यवस्था को देखकर भी जरुर चकरा जाता होगा. इस बार चकरू की परेशानियों को मैंने कुछ ऐसे सामने लाने का प्रयास किया है.................
क्यों न चकरू चकराए चक्रधर भाई
नई शिक्षा व्यवस्था में है नई बीमारी आई
है नई बीमारी आई दीखते सब पीड़ित हैं भाई
कही छात्र लिये बैठे सिगार और कही गुरु कर रहे पढाई
चकरू चतुर हैं रहे नहीं, न चिकनी बात कभी है बनाई
दुनियादारी और छल कपट इनको नहीं सुहाई
है इनको नहीं सुहाई अतः बात सीधे है बताई
दोनों मिलकर दे सकते जग को नव ऊर्जा और तरुणाई
कहें हर्ष सहर्ष सुनें सब गुरुजन, प्रियजन और भाई
गुरु रहेगा गुरु, शिष्य-शिष्य रह जाई
अपनी-अपनी सीमा की पहचान जो इनको आई.
समय और वातावरण से तो ताल्लुक नहीं रखती लेकिन आज की लिखी हुई अपनी कुछ एक और पंक्तियाँ भी आज यहाँ लिखता चलूँ..................
भरे पेट अपना चाहे जैसे भी हो
पता न चलता रोग कहाँ और कैसी ये लाचारी है,
दो समय की रोटी जुटा हीं पाना लक्ष्य यदि है जीवन का
तो फिर सच है की पशुओं का जीवन भी हमपे भारी है .
भारत और भारतीय सोच को दर्शाती ये पंक्तियाँ भी कि...........
बसा जो हो अपना घर तो हर घर न्यारा लगता है
प्यार जो हो अपने दिल में तो हर दिल प्यारा लगता है,
कुछ ऐसी हीं खास बात है हम भारत वासी लोगों में
दुश्मन चाहे लाख सताए हमको प्यारा लगता है.
अंततः एक बार फिर से शिक्षक दिवस की ढ़ेर सारी शुभकामनायें. शिक्षक दिवस और हाल में ख़त्म हुए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से सम्बंधित फोटोग्राफ्स के लिये इंतजार कीजिये अगली पोस्ट का क्योंकि अभी पोस्ट कर पाना संभव नहीं हो पा रहा. आज के लिये बस इतना ही............
धन्यवाद"
Sunday, August 15, 2010
शुभकामनायें: पर अतुल्य भारत के सपने का क्या होगा?

धन्यवाद"
Monday, July 26, 2010
"लौट आया हूँ फिर से उसी दिनचर्या में"
जब परीक्षाएँ ख़त्म हुईं तो लगा की चलो काम से काम कुछ दिन के लिये इस दिनचार्य से मुक्ति तो मिली लेकिन छुट्टियाँ जाने कैसे बीत गईं और हम लोग फिर से उसी दिनचर्या में लौट भी आए. वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है थोड़े दिन की छुट्टियों के बाद फिर से छात्रावासीय दिनचर्या में लौट आने का ये सिलसिला पिछले ग्यारह सालों से चलता आ रहा है. इन पंक्तियों के माध्यम से मैंने कुछ ऐसा ही कहने के प्रयास किया है..........
फिर से लौट आया हूँ उसी दिनचर्या में
पिछली ग्यारह सालों से रहता आया हूँ जिसमे
हाँ सच है कि कुछ परिवर्तन भी होते रहे हैं इसमे
पर एक लक्ष्य और एक ध्येय से बढ़ता रहा इन वर्षों में.
यह सच है कि थोड़े दिन इस दिनचर्या से दूर हो फिर उसी में आ जाने का सिलसिला कई वर्षों से चलता आ रहा है लेकिन पहली बार इससे दूर हो जाने की सोचकर कुछ अजीब सा महसूस कर रहा हूँ. इसे कुछ इन शब्दों में व्यक्त करने का प्रयाश किया है..........
मम्मी पापा के छाया में
दीये के मद्धम लौ के नीचे
बैठ के भाई बहनों संग
लक्ष्य के कुछ सीमा थे खींचे.
कल का भी लक्ष्य वही होगा
बातें भी कुछ सोची सी होंगी
पर दूर होकर इस दिनचर्या से
कल कि दिनचर्या जाने क्या होगी.
वैसे कल पर तो अपना वश नहीं, आज को जी लेते हैं कल देखेंगे क्या होता है????????????
धन्यवाद"
फिर से लौट आया हूँ उसी दिनचर्या में
पिछली ग्यारह सालों से रहता आया हूँ जिसमे
हाँ सच है कि कुछ परिवर्तन भी होते रहे हैं इसमे
पर एक लक्ष्य और एक ध्येय से बढ़ता रहा इन वर्षों में.
यह सच है कि थोड़े दिन इस दिनचर्या से दूर हो फिर उसी में आ जाने का सिलसिला कई वर्षों से चलता आ रहा है लेकिन पहली बार इससे दूर हो जाने की सोचकर कुछ अजीब सा महसूस कर रहा हूँ. इसे कुछ इन शब्दों में व्यक्त करने का प्रयाश किया है..........
मम्मी पापा के छाया में
दीये के मद्धम लौ के नीचे
बैठ के भाई बहनों संग
लक्ष्य के कुछ सीमा थे खींचे.
कल का भी लक्ष्य वही होगा
बातें भी कुछ सोची सी होंगी
पर दूर होकर इस दिनचर्या से
कल कि दिनचर्या जाने क्या होगी.
वैसे कल पर तो अपना वश नहीं, आज को जी लेते हैं कल देखेंगे क्या होता है????????????
धन्यवाद"
Wednesday, July 14, 2010
"कश्मीर-एक समस्या?

कश्मीर आखिर कब तक झेलता रहेगा यह सब? कभी सेना का खौफ,कभी आतंक का साया और कभी सत्ता लोलुप नेताओं की नीतियाँ सबने परेशान किया है इसे. आखीर किसका साथ दे कश्मीरी जनता? सब का लगभग एक ही मकसद नजर आता है. किसने उसे रातों में नींद और दिन में चैन देने का प्रयास किया है. भारतीय स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कश्मीर के लोग आज तक अपने आप को स्वतन्त्र महसूस नहीं कर पा रहे, इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
1. क्या वे भारत की प्रगति के साथ खुद को जोड़ना नहीं चाहते?
२. क्या कश्मीरी युवाओं में हमारी तरह देश प्रेम का जज्बा नहीं?
३. क्या उनके मन में उनके साथ जो कुछ भी होता है उसके लिये रोष नहीं होता? ४. क्या उनके शरीर में दिल नाम की कोई चीज नहीं जिसमे करुणा और संवेदना हो?
५. क्या वहाँ रहने वाले लोगों का हृदय हमारी तरह नहीं जो कि नित्य प्रति वहाँ होने वाले घटनाओं के बारे में या फिर वहाँ की स्थिति के बारे में सुनकर सोचकर या फिर पढ़कर रो पड़ता हो?
६. क्या वहा के माँ बाप बच्चों को खुन की होली खेलने की तालीम देते हैं, क्या उनके नजर में मार काट गोले बारूद के अलावा और कुछ भी नहीं?
७. क्या वहाँ के युवाओं के दिमाग में भारत की तस्वीर बदल देने की क्षमता रखने वाली सोच नहीं?
८. क्या उन्हें सही गलत का एहसास नहीं जो वे भटके हुए के से जीवन यापन कर रहे हैं?
१०. क्या वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसके लिये वहाँ की जनता जिम्मेदार है?

ऐसा कहा गया है की कवि और साहित्यकार समाज का आईना होते हैं और ऐसे में साठ के दशक में कश्मीर के मशहूर शायर महजूर यदि कुछ ऐसा लिखते हैं कि "हिंदुस्तान तेरे वास्ते मेरा जिस्म और जान हाजिर है, लेकिन दिल तो पाकिस्तान का है" तो फिर उस समय के कश्मीरी आवाम के लोगों के मनः स्थिति के बारे में बहुत आसानी से सोचा जा सकता है. ऐसे समय में उन्हें विश्वास में लेने की ज़रूरत थी, लेकिन कुछ ऐसा करने का प्रयास नहीं किया गया. कल जब समाचार पत्र पढ़ रहा था तो पता चला की इस समय जो कुछ भी हो रहा है, उसके समाधान के लिये जब सभी पार्टियों की बैठक बुलाई गई तो कुछ पार्टियों ने सीधे तौर पर बैठक में जाने से इंकार कर दिया. क्या वे सीधे तौर पे यह सन्देश देना नहीं चाहते की उनकी चाहत है कि आज जो भी स्थिति है वो यथावत बनी रहे और जो कुछ हो रहा है वो उनके संरक्षण में हो रहा है?
मामला राजनितिक है ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा की वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसमे वहाँ कि राजनितिक पार्टियों के भागीदार होने की बात को नाकारा नहीं जा सकता और उन्हें किसी भी कीमत पर बक्शा नहीं जाना चाहिए. ऐसे में हमें कठोर से कठोर कदम लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए, नहीं तो कश्मीर?????????????
(पोस्ट में आवश्यक सुधार कर पाने के लिये समय नहीं बचा. आज ही घर जाने के लिये ट्रेन पकडनी है. अतः यदि वर्तनी सम्बन्धी कोई गलती हो तो आप लोग क्षमा करके पचा लीजियेगा)
धन्यवाद"
Monday, June 7, 2010
"विश्व पर्यावरण दिवस: छोड़ दी राजनीति मैने तेरे लिये"


कल दिन भर हुए क्रिया कलापों से कुछ बातें भी शेयर करता चलूँ. कल सुबह अपने कुछ दोस्तों के साथ ऊँची ऊँची इमारतों और शहर के हो हल्ले से दूर खेतों की पगडंडियों पर चलकर और किसानों से बात कर बिताया. वहाँ से लौटने के बाद जो शांति महसूस हो रही थी उसके बारे में आपको क्या बताऊँ? बस यूँ समझ लीजिये की यह मेरे अबतक के सबसे अच्छी सुबहों में से एक थी.
चुकीं हाल ही में परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं इसलिए वहाँ से लौटने के बाद का समय दैनिक कार्यों को पूरा करने और पत्र पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताया.लगभग तीन बजे से कॉलेज कैम्पस में ही शुरू हुए सेमिनार में शहर के गणमान्य लोगों, विद्वानों और उद्योग जगत से जुड़ी बड़ी हस्तियों को सुनने और उनके बीच कुछ बोलने का मौका मिला. सबकी बातों को सुनकर मैंने जो निष्कर्ष निकला उसे मैंने पोस्ट में सबसे ऊपर स्थान दिया है क्योंकि कुछ लोगों को कम्मेंट करने कि इतनी जल्दी रहती है कि वो पूरा पोस्ट पढना मुनासिब नहीं समझते और फिर मुझे आप सबके सामने अपनी बात भी तो रख देनी थी????????????
सेमिनार में अपने द्वारा लिखी कुछ पंक्तियों को सुनाकर मैंने वाहवाही भी बटोरी जो यहाँ आपके लिये भी प्रस्तुत है................
कुछ खोकर कुछ पा लेने की स्थिति कहाँ तक अच्छी है
कुछ पाकर पाते जाने की कोई बात करो तब तो जाने.
उपरोक्त पंक्ति लोगों के इस बात को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं कि यदि विकास होगा तो पर्यावरण प्रदुषण भी बढेगा. कुछ हद तक यह बात सही भी है लेकिन हमें कुछ ऐसा करने कि ज़रूरत है जिससे विकास भी हो और प्रदुषण भी न हो.
हम उम्मीद करते हैं
बढ़ते तापमान के साथ कल्पना के उड़ान की
प्रदूषित जल के साथ एक स्वस्थ मस्तिष्क की
प्रदूषित हवा के साथ एक स्वस्थ शरीर की
प्रदूषित मृदा से उत्तरोत्तर उत्पादन की
संभव नहीं है यह तबतक जबतक
हम जग नहीं जाते अपने दिवा स्वप्न से.

किसी मजार का दीया क्या कर सकेगा
कोई उधर का दीया कबतक रहेगा
मेरा दीया जो साथ है मेरे निरंतर
मेरे तीमीर को बस वही ही हर सकेगा.
कुछ तो अपने और कुछ भारतीय और विदेशी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी ये पंक्ति भी सुनाई.................
दुनिया तेरी हर चाल से वाकिफ होता हूँ
तू कही षणयंत्र बनती और मै कही चैन से सोता हूँ
अपने शब्दों में जब भी तुमने मात दिया है मुझको
मेरा भोलापन शायद तब छू न पाया तुझको.
बहुत ज्यादा दिन का अनुभव नहीं रखता हूँ फिर मुझे कल और आज में भी बहुत अंतर दिखाई पड़ता है जिसे मैंने इन पंक्तियों में सहेजा है....................
ऐ प्रकृति के कोमल कृति देखा था तुमको बसा हुआ.
आज तुम्हे तुम्हारा इस दशा को
ईश्वरकृत न्यायिक दंश कहूँ
या मानव कृत विध्वंश कहूँ
पर जो भी कहूँ यह सत्य कहूँ की
देखा था कभी हरियाली तुममे
तेरा बाहू पाश था कसा हुआ
ऐ प्रकृति के कोमल कृति देखा था तुमको बसा हुआ.

धन्यवाद"
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