Sunday, April 10, 2011

"तुम्हारा इन्तजार रहेगा..

जन लोकपाल विधेयक और लोकपाल विधेयक को लेकर काफी हो हल्ला हो चुका अबतक. दोनों विधेयकों के प्रावधानों को पढने के बाद यह बात तो साफ़ है कि अन्ना हजारे समर्थित जन लोकपाल विधेयक जनता के उम्मीदों पर कहीं ज्यादा खरा उतरती है,लेकिन एक बात मुझे समझ में नहीं आती की जनसेवा के इन ठेकेदारों को यह बात इतनी देर से क्यों समझ में आई? और फिर इतना सब कुछ होने के बावजूद यक्ष प्रश्न यह है की क्या यह विधेयक हमारे उम्मीदों पर खरा उतर पायेगा????????????
एक सार्थक उत्तर की चाहत मै भी रखता हूँ.मुझे भी ख़ुशी है कि एक जन आन्दोलन सफल रहा और सरकार को जनता के सामने झुकना पड़ा. मुझे ख़ुशी है कि पिछले ४० सालों से सामाजिक कार्यों से जुड़े रहने वाले अन्ना हजारे को पहली बार इतनी बड़ी सफलता मिली जिसके वे हकदार थे,ठीक वैसे ही जैसे पिछले २१ सालों से क्रिकेट साधना में लगे सचिन तेंदुलकर को वर्ल्ड कप. ख़ुशी इस बात की भी है कि  यह आन्दोलन इतना व्यापक रूप ले सका. लेकिन!!!!!!!!!!!!!!!!!
अनसन ख़त्म होने के एक दिन बाद ही समिति के सदस्यों को लेकर अपनों द्वारा हीं टांग खिंचाई शुरू हो गई है,  कल तक जिस विधेयक को लेकर सरकार हाँ ना की स्थिति में थी आज उसके समर्थन में है और सारी मांगे मानने को कैसे तैयार है! इस आन्दोलन को जितने लोगों का समर्थन मिला वे खुद को भ्रष्टाचार से कितना अलग पाते हैं,कही यह जय प्रकाश नारायण के उस सफल आन्दोलन की तरह तो नहीं जो की अपनों की वजह से ही विरोधी को और मजबूत स्थिति में ला खड़ा किया, कैंडल मार्च,धरना प्रदर्शन,आमरण अनशन इत्यादि कही फैशन का रूप ना ले लें आदि कुछ ऐसे सवाल है जिनको लेकर मन में संशय की स्थिति है. फिर भी एक भ्रष्टाचार मुक्त और उज्जवल कल तुम्हारा इन्तजार रहेगा.....

Tuesday, March 22, 2011

"ये रंग तुम्हारे याद रहेंगे"

 आज सबसे पहले तो समस्त ब्लॉगर बन्धुवों को होली की ढेर सारी शुभकामनायें. इंटरनेट के ठीक ढंग से काम न करने की वजह से बधाइयाँ समय पर नहीं प्रेषित कर सका. वैसे हमारे यहाँ तो होली मिलन और बधाइयों का सिलसिला तो होली के बाद भी कई दिनों तक चलते रहता है, अगर आप में से किसी के वहाँ ऐसा न होता हो तो फिर समय से ऐसा न कर पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ.
पिछले दिनों एक कार्यक्रम के भाग दौड़ के बीच एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया. लभग १० दिन तक बिस्तर की सेवा लेने के बाद अब रिकवरी का समय चल रहा है. चोट की जगह पर रंग गुलाल इत्यादी की वजह से संक्रमण को देखते हुए डाक्टर ने होली के हुडदंग से दुर रहने की नशीहत दे दी,और फिर इस प्रकार इस बार होली की छुट्टियों में घर जाने के विचार को बदलना पड़ा. सबसे बड़ी बात तो ये थी की वहाँ किसको-किसको रंग गुलाल के लिए मना करते रहेंगे और फिर कैसे हुआ? क्या हुआ? कब हुआ? इत्यादी प्रश्नों को सोचकर होली से दुरी कर लेना ही श्रेयस्कर समझा. हालाँकि यह निर्णय इतना आसन भी नहीं था......
होली छुट्टी के पूर्व संध्या पर होली के हुडदंग से संबंधित योजना बनाई जा रही है,रंग गुलाल इत्यादि की व्यवस्था की जा रही है. यहाँ तक की इन दो दिन की छुट्टियों में घर पे क्या कुछ करना है सब कुछ अभी से तय किया जा रहा है. मै कल को सोच रहा हूँ! जब सब चले जायंगे तो फिर क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? लैपटॉप पे फिल्मों की लिस्ट देखता हूँ! ये भी तो इतनी नहीं की समय अच्छे से कट जाये और फिर ये तो मुझे ज्यादा देर तक बांधे भी नहीं रख सकतीं. छुट्टियों में नेट भी नहीं आएगा अतः ब्लॉगिंग भी संभव नहीं है. सब कुछ सोचकर अगले दिन होने वाले पेपर के लिए तैयारी पे ध्यान केन्द्रित करता हूँ.
पेपर देकर लौट आया हूँ. चारो तरफ घर जाने की या फिर उसके लिए तैयारी को लेकर भाग दौड़ मची है. दुआएं लेने देने का कार्यक्रम चल रहा है. बालकनी से बहार नजर दौड़ता हूँ,यहाँ तो रंग गुलाल के साथ होली का हुडदंग भी चल रहा है. पिछले साल तो मै भी इस हुडदंग में सामिल था,खैर कोई बात नहीं,,,,,,,
-कुछ लोगों को घर ले जाने के लिए हाल ही में ख़त्म हुए फेस्ट की ड़ी.वी.डी बना कर देनी है, लैपटॉप निकल कर उसे तैयार करने में लग जाता हूँ...
हुडदंग अब कम हो गई है,अधिकतर लोग जा चुके हैं. मै भी यह मान बैठा हूँ कि इस बार रंग गुलाल का संपर्क भी नहीं होने पायेगा.फोन की घंटी बजती है.....
-नीचे आओ घर जा रहे कम से कम हाथ तो मिला ही सकते हैं ?
-हाँ क्यों नहीं ? (अच्छा है जो कोई घर जाते समय हाथ मिलाकर बधाई देना चाहता है वर्ना कुछ लोगों ने तो घर न जाने की वजह  पुछने की जहमत भी नहीं उठाई)
-एक चीर-परिचित और सरल मुस्कान....
मै भी बिना कुछ सोचे समझे हाथ बढ़ा देता हूँ, तलहथियों के बिच कुछ ठंढ का सा आभास होता है. पूरा हाथ रंग चूका है,हम दोनों मुस्करा रहे हैं....
तुम्हारी मुस्कान सबकुछ बयां कर रही है.तुम्हे पता है कि चेहरे के नए भरे घावों पर इन्फेक्सन का खतरा है पर हाथों पर तो ऐसा कुछ नहीं? तुम खुश हो रंग लगाकर और मई खुश हूँ रंगकर. चलते चलते बस इतना ही कह पाता हूँ कि
-इस होली के लिए बस इतना ही (छात्रावास कि सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते सोंचता हूँ.......)

होली तो आती रहेगी हर साल
मिलते रहेंगे न जाने कितने लोग
और बिछड़ते भी रहेंगे
जैसे तुम भी तो.....
परन्तु जब भी होली कि चर्चा होगी
जब भी मुझपर रंग वर्षा होगी
क्या मै भूल सकूँगा इस होली को?
इस होली के लिए तो जो था
बस इतना सा था....
होली के दिन रतन,राकेश और धर्मेश के साथ जो मस्तियाँ की उसकी फोटोग्राफ्स भी पोस्ट कर रहा हूँ परन्तु रंग के नाम पर तो बस उतना सा था. वैसे मै तो बता गया कैसी रही मेरी होली और आपकी????????????????


                                                     (दुर्घटने की खबर तो इन्होने भी ली)


                                           (कार्यक्रम के सफलता के साथ दुर्घटना का दर्द जाता रहा)


View Holi Tour











Tuesday, March 1, 2011

"एक मुलाकात डा. कुमार विश्वास और जाकिर अली रजनीश जी के साथ"



पिछले शुक्रवार यानि २५-०२-२०११ को हिंदी साहित्य को समृद्ध और लोकप्रिय करने में लगे दो व्यक्तियों से एक साथ मिलने का  मौका मिला. समय था कानपुर  इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलाजी में चल रहे तकनीकी  और सांस्कृतिक कार्यक्रम २०११ का दुसरा दिन .
एक तरफ जाकिर अली रजनीश जो की अबतक प्रकाशित लगभग ६५ किताबों के साथ बाल साहित्य और वैज्ञानिक विषयों पर कलम दौडाते रहे हैं तो दुसरी तरफ डा.कुमार विश्वास अपनी हिन्दी कविताओं  के माध्यम से युवा वर्ग के दिलो दिमाग में बस चुके हैं.
आइये सबसे पहले बात करते हैं डा. कुमार विश्वास के साथ हुई  एक छोटे मुलाकात की......
मिलने की चाहत तबसे थी जब पहली बार "कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है" सुना था. सम्पर्क का माध्यम  बना मेरे ब्लॉग मेरी अन्तराभिव्यक्ति के एक पोस्ट पर इनका एक कमेन्ट जो की अंततः मुलाकात तक का  कारण बना. जब हम लोग विश्वास जी से मिलने पहुचे तो वे टी.वि पर न्यूज देख रहे थे और समकालीन न्यूज पे अपना कमेन्ट दे रहे थे. औपचारिक मुलाकात के बाद वे परफार्मेंस देने जाने की तैयारी में लग गए और बीच-बीच में कुछ -कुछ पुछते और हमारे प्रश्नों का जवाब देते रहे. शक्ल से खुशमिजाज और सरल दिखने वाले विश्वास जी वास्तविक जीवन में भी कुछ ऐसे ही लगे. मेरे एक प्रश्न की आप लगभग कितने देर तक परफार्म करना पसंद करेंगे के जवाब में उन्होंने बड़ी सरलता से कहा की "जबतक odiens चाहेगी". अंततः हुआ भी कुछ ऐसा ही.तालियों के गडगडाहट के बीच वो दो घंटे से ज्यादा देर तक स्टेज पे रहे. एक प्रश्न के जवाब में की युवा उनको सुनना क्यों पसंद करते हैं उन्होंने कहा"  एक समय था जब कवि सम्मेलनों में जाने वालों की औसत उम्र ५० साल हुआ करती थी. ये मेरा अहंकार नहीं बल्कि मेरा आत्मविश्वास बोल रहा है कि आज कुमार विश्वास का नाम सुनते ही  ये २० साल हो जाती है. मैंने उनको वो सुनाने का प्रयास किया है जो की मैंने खुद महसूस किया है. मेरे पास, मेरी कवितावों में उन्हें कुछ अपना सा लगता है इसलिए सुनने आते हैं". मोबाइल, लैपटॉप पे कवितायेँ सुन कर वाह वाह करने से अलग उन्हें सामने सुनकर वाह-वाह करने का आनंद सुखद रहा.
अब बात करते हैं जाकिर अली रजनीश जी की. कार्यक्रम थोडा लंबा खिंच गया लेकिन ऐसे में भी अपनी यात्रा के थकन के बावजूद रजनीश जी ११.१५ तक हम लोगों के साथ रहे. ढलती रात को देखते हुए मैंने सुबह में उनसे मिलने का मन बनाया और उन्हें होटल तक छोड़ने को सोचा. जब मैंने उनके साथ होटल तक जाने की बात की तो उन्होंने बड़ी सरलता से यह कहते हुए मना कर दिया की कहा परेशान होओगे कल सुबह मिल लेंगे अभी मै अकेले ही चला जाऊंगा. सुबह लगभग ८.३० बजे जब मै पवन मिश्रा सर के साथ  होटल पहुंचा तो ये चाय की चुस्कियां ले रहे थे. बातों बातों में इन्होंने बताया की उनकी लगभग ६५ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं,साथ ही पराग,नंदन जैसी पत्रिकावों में ६०० से ज्यादा कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. मुझे सबसे अच्छी बात लगी रजनीश जी की खुद की विकसित की गई लिपि  जिसे की उन्होंने अपने कालेज के समय में खुद से विकसित  किया था.  रजनीश जी ने अपने डायरी के पन्नों पर उकेरी टेढ़ी मेढ़ी लाइनों को दिखाते हुए बताया की "मै खुद की बने इस लिपि में ज्यादा सहज महसुस करता हूँ और केवल मै ही इसमें लिख और पढ़ सकता हूँ". मेरे और पवन सर के साथ हुए बातचीत के दौरान हम लोगों ने,जाति,धर्म,.विज्ञान ,राजनीति  आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा की. 
अंततः समय के पाबंद हम लोग अपने-अपने रास्ते पर निकल तो लिए लेकिन मुलाकात के बाद ब्लॉग और मेल तक का यह संबंध अब भावनात्मक रिश्तों का रूप ले चूका है और इसे जाकिर अली रजनीश जी ने भी अपने एक पोस्ट के  माध्यम से जाहिर किया है.

Sunday, January 30, 2011

"ये भ्रष्टतंत्र खटकता है"

पिछले दिनों के घटनाक्रम पे जब नजर डालता हूँ तो कुछ बातों को लेकर थोड़ा असहज महसूस करता  हूँ .....
एक तरफ देश को आजादी दिलाने वाले महापुरुषों को याद किया जाना
और फिर देश के किसी राज्य में शांति के लिए फरीयाद    किया  जाना
विश्व के बड़ी अर्थव्यवस्था में नाम का आना
और फिर किसी गरीब का भूखे पेट सो जाना
विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र कहलाना
और फिर देश में झंडा फहराए जाने से कतराना
एक ईमानदार अधिकारी का  जिन्दा जलाया जाना
और फिर से एक मसले का न्यायलय तक आ जाना.  

जब देश और    समाज         को         टटोलता हूँ
खुशफहमी की पोटली को जब रोशनी में खोलता हूँ
लगता है की      सरेआम  लुटा जा रहा हूँ
देश का भविष्य सोच-सोच टूटा जा रहा हूँ
कुछ बोलने को होता हूँ तो मन में कुछ अटकता है
संसद से सड़क तक का      ये भ्रष्टतंत्र खटकता है
धन्यवाद"


Saturday, January 1, 2011

"नया वर्ष, नई उमंगें"


कल शाम जब २०१० अपने लाव लस्कर के साथ विदा होने को तैयार  था नया वर्ष २०११ कुछ नया लिए दस्तक देने की तैयारी  में लगा था. आज सुबह हुआ भी कुछ ऐसा ही, सुबह सामान्य से कुछ अलग लगी. इसने संजो रखे थे कुछ नया,कुछ अलग जो की बहुत अलग था कल से. एक तरफ २०१० कुछ पुरे तो कुछ अधूरे  सपनों के साथ विदा हुआ तो दूसरी तरफ एक नए वर्ष के रूप में २०११ एक बार फिर से एक नए जोश, नए उमंग और नए उत्साह का संचार कर कुछ नया कर गुजरने की सोच के साथ  उपस्थित हुआ.
                                           वैसे ये तो हर नए साल की कहानी है जो की कल के अधूरे रह गये सपनों को पूरा करने के लिए एक नई जाग्रति दे जाता है, और फिर से उठ खड़े होने के लिए एक नया जोश और नए  उमंग का संचार कर जाता है. तो फिर आइये खड़े हो जाइये एक उज्जवल कल के निर्माण के लिए, एक सुखद भविष्य के लिए, कुछ नया कर गुजरने के सपनों को सजोने और उसे पूरा करने  के हर संभव प्रयास  के लिए. सभी ब्लॉगर  बन्धुवों  और पाठकों के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत और फिर यूँ कहे की सम्पूर्ण विश्व के उज्जवल भविष्य के लिए अनंत असीम शुभकामनाएं. इंतजार है एक सुदृढ़, सशक्त  और संभावनावों से परिपूर्ण कल का,,,,,,,,,,,,,,,,
                           अबतक    बधाइयों   का       माहौल    थोड़ा    गर्म था
                           कविता अभी तक शांत थी कवि   अभी तक   मौन था
                           अब जब सब कुछ शांत है बधाइयाँ     प्रेषित कर रहा हूँ
                          न प्रत्यक्ष तो शब्दों से ही खुशियों की  झोली भर रहा हूँ 



(परीक्षाओं के बीच दो दिन के गैप ने आज एक पोस्ट लिखने का मौका दे दिया. परीक्षाएँ ख़त्म हों तो पोस्ट में कुछ नया  जोड़ने का प्रयास करूँगा तबतक के लिए बस इतना ही)
धन्यवाद"


Thursday, December 16, 2010

"पहली पोस्ट कानपुर ब्लॉगर एसोसिएसन के लिए"

(मजे की बात ये है कि इस बार फिर परीक्षाओं  के बाद आप सब के सामने उपस्थित हूँ.  कानपुर ब्लॉगर एसोसिएसन के लिये  "संभव हो सके तो कुछ इंसान बनाए" शीर्षक से मैंने आज एक पोस्ट लिखी. समय की कुछ कमी है सो यहाँ के लिये कुछ अलग नहीं लिख पा रहा. अतः उसी पोस्ट को यहाँ भी ठेल रहा हूँ ).
 असमंजस में हूँ कि कानपुर ब्लॉगर एसोसिएसन पर पहली पोस्ट के रूप में क्या पोस्ट करूँ? बातें बहुत सी हैं कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ तक करूँ. ब्लॉग पे एक सदस्य के रूप में आगे भी बहुत सारी बातें होती रहेंगी पर आज कानपुर ब्लॉगर एसोसिएसन  के ब्लॉगर बन्धुवों से कहना चाहूँगा की आजकल मुझे इन्सान और इंसानियत  की कमी सी लग रही है, सब के सब मशीन के से बने हुए दिखते हैं. ऐसे में यदि हम कुछ ऐसा करें की कुछ इन्सान बना सकें तो ??????????????????
                                 मुझे पता है कि आज ब्लोगिंग से जितने भी लोग जुड़े हैं उनके अन्दर प्रेम,भाव,संवेदना और इंसानियत नाम की चीजें हैं, तभी वे यहाँ कुछ लिख पाते हैं. ये वे लोग हैं जो घिसी पिटी जिंदगी से ऊपर उठ कुछ करने का माद्दा रखते हैं और कुछ कर सकते हैं. ये भी पता है की ब्लॉगिंग की इस दुनिया में कुछ ऐसे भी छद्म वेशधारी लोग बैठे हैं जो की कंप्यूटर स्क्रीन के सामने बैठ कीबोर्ड पे उँगलियाँ चला बहुत बड़ी बड़ी बातें लिख जातें हैं लेकिन वास्तविक जीवन में उनका उससे कोई ताल्लुक नहीं. लेकिन सुकून की बात ये है कि यहाँ ऐसे लोगों की संख्या कम ही है. मैंने अपनि बातों को पंक्तियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, कुछ ऐसे............

कविता लिखी कहानी लिखी और है ज्ञान बढाया
कभी कुछ   विशिष्ट लिखकर   है नाम    कमाया
आज तेरी    लेखनी को   है   चुनौती   मेरी एक
विजयी कहूँगा तुम्हे   जो कुछ इन्सान   बनाया

क्षमता है तेरी लेखनी में   तेरे ह्रदय  में भाव है
अगर कोरी    कल्पना      से     तुम्हे दुराव है
तो लिखो आज, कल कोई तूफान लाने के लिये
बढ़ो आज कल   को सोचेंगे    कहा    पड़ाव है

चल रही हैं आंधियां     खुद   को     बचाना सीख लें
वक्त जद में न हो   तो    कंधे   झुकाना    सीख    लें
चीख कर कमजोरियां छिपाने वालों से डरते हैं क्यों
शांत रहकर सत्य    से नाता     बनाना     सीख ले

अगर चेहरा ही बताता दिल के अन्दर   की     असलियत
तो फिर   इन    फरेबियों का     ठिकाना     होता    कहाँ
अच्छा है सफल हो जाना इनका कभी कुछ इस कदर की 
इस ज़माने में सही     की   पहचान     भी    होती     रहे 
धन्यवाद"

  

Saturday, October 23, 2010

"छू गया मुझे तब तेरा भोलापन"

पहले  की तरह इस बार भी परीक्षायें खत्म हुई तो ब्लागिंग का शौक पूरा करने ब्लाग जगत में पहुँच गया। हाल मे ही खत्म हुए दशहरा पूजा के अलावा  कालेज मे नवागन्तुकों के स्वागत मे आयोजित उदभव से जुडी यादें भी अभी यथावत बनी हुई हैं, जिन्हे की आप सब तक पहुँचा सकता हूँ । लेकिन आज कुछ ही दिन पहले की अपने यात्रा से जुडी कुछ यादों के साथ-साथ उपरोक्त कार्यक्रमों की तस्वीरें पोस्ट करने का मन पह्ले से ही बनाये बैठा हूँ। और फ़िर तस्वीरे भी तो बोलती है? अतः कार्यक्रमों की जानकारी उन्ही से ले लीजियेगा.
                                         हुआ यूँ कि दशहरे और दीपावली मे घर न जा पाने की स्थिति को पहले  ही भाँपते हुए मैं मौके से मिली दो छुट्टीयों और रविवार महोदय की असीम अनुकम्पा को देखते हुए नवरात्रि के प्रारंभ मे ही घर जाने का मन बना डाला, ट्रेन मे सीट भी आरक्षित कर ली गई। आदत से मजबूर मै निश्चित समय से दो घन्टे पहले  ही यह सोचकर छात्रावास से निकल लिया ताकि निर्धारीत समय से थोडा पहले ही स्टेशन पहुच सकूँ। समय से मिल गई आटो ने लगभग आधे घन्टे मे ही स्टे्शन पहुंचा दिया। अब शुरु हुआ इन्तजार का सिलसिला। जब निर्धारित समय के एक घन्टे बाद तक ट्रेन नही आई तो मैं कुछ दोस्त मित्रों और करीबियों को फ़ोन कर भारतीय रेल के महान परंपरा का गुणगान प्रारंभ किया और उनसे सहानुभूति लेने लगा। किसी की सहानुभूति काम आई और लगभग दो घन्टे की देरी से ट्रेन ने दस्तक दी। कुल मिलाकर लगभग चार घन्टे तक स्टे्शन पर बिताने के बाद ट्रेन के आने की खुशी मेरे चेहरे पे देखी जा सकती थी। आनन-फ़ानन में ट्रेन में सवार हो अपनी निर्धारित सीट पर पसर गया।
                            अब मुद्दे की बात, की यात्रा खास क्यों थी?  यात्रा के दौरान क्या करना है? और क्या नही? से संबंधित ढेर सारे टिप्स मिलते रहे हैं | जैसे क्या खाना है?  क्या नहीं,  किससे बात करनी है? किससे नही, कैसे उतरना?, कैसे चढना? और तो और किसे देखना और किसे नही? सबकुछ ध्यान मे रखते हुए मैने बैग से हेडफ़ोन निकला, एक हिस्सा मोबाइल महाराज  की शरण मे दे दूसरे हिस्से को कान मे लगा देश दुनिया से बेखबर हो जाने का प्रयास करने लगा।
गाने बदल रहे हैं, सामने की बर्थ पर लगभग एक पांच वर्षीय लड़की उम्र मे अपने से दो-तीन साल बडे भाई से नोंक-झोंक कर रही है…….
-पर मुझे क्या करना है? गाना बदल दिया.......
-कुछ अनसुना  सा लग रहा है, शायद किसी नई फ़िल्म का है!
-अच्छा नही लग रहा!!!!!!!!!
-इसे भी बदलते है, हां अब अच्छा है।
-लड़की भाई से उलझना छोड बर्थ के बीच मे बैठ गई है, शायद मेरी तरफ़ देख रही है@
-पर मुझे क्या? मै क्यों देखने जाऊ? पता नही किसको आपत्ति हो जाये ?(वैसे भी लोग आजकल जाने कब? किस बात पे?  कैसे और क्यों? बिना कुछ सोचे नाराज हो जाएँ )
-वो अब भी देख रही है………
-कोई दिक्कत तो नही?  कुछ कह तो नही रही? (गाने पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहा हूँ)
-वो अब भी इधर ही……………………….
-छोडो जाने दो, जिसको जो सोचना हो सोचे, शायद कुछ पूछ्ना या बताना चाह्ती है…..
-एक लम्बी सी मुस्कान, ऐसा लग रहा जाने कितना पुराना परिचय हो...
-गाने सुन  रहे हैं क्या ?
-हाँ , तुम्हे भी सुनना है ?
इधर-उधर देखकर कोई उत्तर नही, मैने फोन से  हेडफ़ोन निकाला और आवाज थोडी तेज कर दी। वो बहुत खुश है, बार-बार चेहरे की तरफ़ देखती है और मुस्कराती है | मै भी उसके कुछ उलजलूल बातों का ढुलमुल उत्तर दीये जा रहा हूँ |
-आपको नींद नही आ रही ?  अब मै सोने जा रही हूँ|
समझ नही पाया की बता रही है ? या फ़िर पूछ रही है !
मैंने भी मौन स्वीकृति में सर हिला मुस्करा कर सो जाने का इशारा किया। जानने की उत्सुकता हुई क्या वास्तव मे सो गई ? जवाब हां था। यात्रा के दौरान सोने की आदत वैसे भी नही है। मैने बैग से डायरी और कलम निकला और जो भाव आते गये पन्नों पर उकेरता चला गया, कुछ ऐसे…
सोचता हू,
तुम्हारे इस मासूम और निश्छल हँसी का राज
लगता है,
उम्र छोटी है तेरी
तू अनजान है दुनिया के नीतियों से
दुनियादारी और ऊंची-नीची बातों से
नही जानती हो छ्ल कपट की दुनिया को।
कल जब तुम हो जाओगी बड़ी 
छीन ली जायेगी तुम्हारी
कुछ इस तरह की निश्छल हँसी 
भर दी जायेंगी ढेर सारी उल्टी-सीधी बातें
तुम्हारे दिमाग मे
निश्चय ही दी जायेंगी कुछ ठोकरें
जो तुम्हे बना देंगी कठोर
रोकेंगी कुछ ऐसा कर पाने से।
हिम्मत भी करोगी कुछ ऐसा करने को
पर रहेंगी चिन्तायें तेरे मष्तिक मे की
कही कुछ ऐसा न हो?
कही कुछ वैसा न हो?
है मुझे पता की समय साथ  छीन जायेगा तेरा ये    भोलापन
पर सौ बार ये मन्न्त करता हू कि खुदा बचाये तेरा  बचपन।
पोस्ट बहुत बडी हो गई। यह यात्रा इसलिये भी यादगार है कि अबतक के जीवन मे पहली बार स्टेशन पे दस मिनट पहले  पहुंचा। यदि थोडी जल्दीबाजी नही की होती तो अगले स्टेशन पर उतरना पड्ता |


























 धन्यवाद"