जब परीक्षाएँ ख़त्म हुईं तो लगा की चलो काम से काम कुछ दिन के लिये इस दिनचार्य से मुक्ति तो मिली लेकिन छुट्टियाँ जाने कैसे बीत गईं और हम लोग फिर से उसी दिनचर्या में लौट भी आए. वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है थोड़े दिन की छुट्टियों के बाद फिर से छात्रावासीय दिनचर्या में लौट आने का ये सिलसिला पिछले ग्यारह सालों से चलता आ रहा है. इन पंक्तियों के माध्यम से मैंने कुछ ऐसा ही कहने के प्रयास किया है..........
फिर से लौट आया हूँ उसी दिनचर्या में
पिछली ग्यारह सालों से रहता आया हूँ जिसमे
हाँ सच है कि कुछ परिवर्तन भी होते रहे हैं इसमे
पर एक लक्ष्य और एक ध्येय से बढ़ता रहा इन वर्षों में.
यह सच है कि थोड़े दिन इस दिनचर्या से दूर हो फिर उसी में आ जाने का सिलसिला कई वर्षों से चलता आ रहा है लेकिन पहली बार इससे दूर हो जाने की सोचकर कुछ अजीब सा महसूस कर रहा हूँ. इसे कुछ इन शब्दों में व्यक्त करने का प्रयाश किया है..........
मम्मी पापा के छाया में
दीये के मद्धम लौ के नीचे
बैठ के भाई बहनों संग
लक्ष्य के कुछ सीमा थे खींचे.
कल का भी लक्ष्य वही होगा
बातें भी कुछ सोची सी होंगी
पर दूर होकर इस दिनचर्या से
कल कि दिनचर्या जाने क्या होगी.
वैसे कल पर तो अपना वश नहीं, आज को जी लेते हैं कल देखेंगे क्या होता है????????????
धन्यवाद"
Monday, July 26, 2010
Wednesday, July 14, 2010
"कश्मीर-एक समस्या?
लगभग पिछले एक महीने से कुछ भी पोस्ट न कर पाने के लिये खुद के आलस्य को जिम्मेदार ठहराऊंगा क्योंकि यदि चाहता तो एक दो पोस्ट तो कर ही सकता था. खैर पिछले कई दिनों से कश्मीर में हो रहे घटनाक्रम के बारे में पढ़कर और सुनकर मुझे काफी अफ़सोस हुआ. कभी कश्मीर की खुबशुरती के बारे में पढ़कर मैंने यह दृढ निश्चय किया था कि एक बार कश्मीर जरुर जाऊंगा. लेकिन आज स्थिति ये है कि कश्मीर का नाम सुनकर काले कपडे से ढके किसी आतंकी का चेहरा दिमाग में घूम जाता है.
कश्मीर आखिर कब तक झेलता रहेगा यह सब? कभी सेना का खौफ,कभी आतंक का साया और कभी सत्ता लोलुप नेताओं की नीतियाँ सबने परेशान किया है इसे. आखीर किसका साथ दे कश्मीरी जनता? सब का लगभग एक ही मकसद नजर आता है. किसने उसे रातों में नींद और दिन में चैन देने का प्रयास किया है. भारतीय स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कश्मीर के लोग आज तक अपने आप को स्वतन्त्र महसूस नहीं कर पा रहे, इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
1. क्या वे भारत की प्रगति के साथ खुद को जोड़ना नहीं चाहते?
२. क्या कश्मीरी युवाओं में हमारी तरह देश प्रेम का जज्बा नहीं?
३. क्या उनके मन में उनके साथ जो कुछ भी होता है उसके लिये रोष नहीं होता? ४. क्या उनके शरीर में दिल नाम की कोई चीज नहीं जिसमे करुणा और संवेदना हो?
५. क्या वहाँ रहने वाले लोगों का हृदय हमारी तरह नहीं जो कि नित्य प्रति वहाँ होने वाले घटनाओं के बारे में या फिर वहाँ की स्थिति के बारे में सुनकर सोचकर या फिर पढ़कर रो पड़ता हो?
६. क्या वहा के माँ बाप बच्चों को खुन की होली खेलने की तालीम देते हैं, क्या उनके नजर में मार काट गोले बारूद के अलावा और कुछ भी नहीं?
७. क्या वहाँ के युवाओं के दिमाग में भारत की तस्वीर बदल देने की क्षमता रखने वाली सोच नहीं?
८. क्या उन्हें सही गलत का एहसास नहीं जो वे भटके हुए के से जीवन यापन कर रहे हैं?
१०. क्या वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसके लिये वहाँ की जनता जिम्मेदार है?
सच तो यह है कि उपरोक्त सारी बातें उनके विरुद्ध लिखीं गई हैं. उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिये हमारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं. क्या यह सच नहीं की यदि हमारे नीति निर्माता अबतक चाहे होते तो इस समस्या का निदान बहुत पहले निकल गया होता?
ऐसा कहा गया है की कवि और साहित्यकार समाज का आईना होते हैं और ऐसे में साठ के दशक में कश्मीर के मशहूर शायर महजूर यदि कुछ ऐसा लिखते हैं कि "हिंदुस्तान तेरे वास्ते मेरा जिस्म और जान हाजिर है, लेकिन दिल तो पाकिस्तान का है" तो फिर उस समय के कश्मीरी आवाम के लोगों के मनः स्थिति के बारे में बहुत आसानी से सोचा जा सकता है. ऐसे समय में उन्हें विश्वास में लेने की ज़रूरत थी, लेकिन कुछ ऐसा करने का प्रयास नहीं किया गया. कल जब समाचार पत्र पढ़ रहा था तो पता चला की इस समय जो कुछ भी हो रहा है, उसके समाधान के लिये जब सभी पार्टियों की बैठक बुलाई गई तो कुछ पार्टियों ने सीधे तौर पर बैठक में जाने से इंकार कर दिया. क्या वे सीधे तौर पे यह सन्देश देना नहीं चाहते की उनकी चाहत है कि आज जो भी स्थिति है वो यथावत बनी रहे और जो कुछ हो रहा है वो उनके संरक्षण में हो रहा है?
मामला राजनितिक है ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा की वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसमे वहाँ कि राजनितिक पार्टियों के भागीदार होने की बात को नाकारा नहीं जा सकता और उन्हें किसी भी कीमत पर बक्शा नहीं जाना चाहिए. ऐसे में हमें कठोर से कठोर कदम लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए, नहीं तो कश्मीर?????????????
कश्मीर आखिर कब तक झेलता रहेगा यह सब? कभी सेना का खौफ,कभी आतंक का साया और कभी सत्ता लोलुप नेताओं की नीतियाँ सबने परेशान किया है इसे. आखीर किसका साथ दे कश्मीरी जनता? सब का लगभग एक ही मकसद नजर आता है. किसने उसे रातों में नींद और दिन में चैन देने का प्रयास किया है. भारतीय स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कश्मीर के लोग आज तक अपने आप को स्वतन्त्र महसूस नहीं कर पा रहे, इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
1. क्या वे भारत की प्रगति के साथ खुद को जोड़ना नहीं चाहते?
२. क्या कश्मीरी युवाओं में हमारी तरह देश प्रेम का जज्बा नहीं?
३. क्या उनके मन में उनके साथ जो कुछ भी होता है उसके लिये रोष नहीं होता? ४. क्या उनके शरीर में दिल नाम की कोई चीज नहीं जिसमे करुणा और संवेदना हो?
५. क्या वहाँ रहने वाले लोगों का हृदय हमारी तरह नहीं जो कि नित्य प्रति वहाँ होने वाले घटनाओं के बारे में या फिर वहाँ की स्थिति के बारे में सुनकर सोचकर या फिर पढ़कर रो पड़ता हो?
६. क्या वहा के माँ बाप बच्चों को खुन की होली खेलने की तालीम देते हैं, क्या उनके नजर में मार काट गोले बारूद के अलावा और कुछ भी नहीं?
७. क्या वहाँ के युवाओं के दिमाग में भारत की तस्वीर बदल देने की क्षमता रखने वाली सोच नहीं?
८. क्या उन्हें सही गलत का एहसास नहीं जो वे भटके हुए के से जीवन यापन कर रहे हैं?
१०. क्या वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसके लिये वहाँ की जनता जिम्मेदार है?
सच तो यह है कि उपरोक्त सारी बातें उनके विरुद्ध लिखीं गई हैं. उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिये हमारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं. क्या यह सच नहीं की यदि हमारे नीति निर्माता अबतक चाहे होते तो इस समस्या का निदान बहुत पहले निकल गया होता?
ऐसा कहा गया है की कवि और साहित्यकार समाज का आईना होते हैं और ऐसे में साठ के दशक में कश्मीर के मशहूर शायर महजूर यदि कुछ ऐसा लिखते हैं कि "हिंदुस्तान तेरे वास्ते मेरा जिस्म और जान हाजिर है, लेकिन दिल तो पाकिस्तान का है" तो फिर उस समय के कश्मीरी आवाम के लोगों के मनः स्थिति के बारे में बहुत आसानी से सोचा जा सकता है. ऐसे समय में उन्हें विश्वास में लेने की ज़रूरत थी, लेकिन कुछ ऐसा करने का प्रयास नहीं किया गया. कल जब समाचार पत्र पढ़ रहा था तो पता चला की इस समय जो कुछ भी हो रहा है, उसके समाधान के लिये जब सभी पार्टियों की बैठक बुलाई गई तो कुछ पार्टियों ने सीधे तौर पर बैठक में जाने से इंकार कर दिया. क्या वे सीधे तौर पे यह सन्देश देना नहीं चाहते की उनकी चाहत है कि आज जो भी स्थिति है वो यथावत बनी रहे और जो कुछ हो रहा है वो उनके संरक्षण में हो रहा है?
मामला राजनितिक है ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा की वहाँ जो कुछ भी हो रहा है उसमे वहाँ कि राजनितिक पार्टियों के भागीदार होने की बात को नाकारा नहीं जा सकता और उन्हें किसी भी कीमत पर बक्शा नहीं जाना चाहिए. ऐसे में हमें कठोर से कठोर कदम लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए, नहीं तो कश्मीर?????????????
(पोस्ट में आवश्यक सुधार कर पाने के लिये समय नहीं बचा. आज ही घर जाने के लिये ट्रेन पकडनी है. अतः यदि वर्तनी सम्बन्धी कोई गलती हो तो आप लोग क्षमा करके पचा लीजियेगा)
धन्यवाद"
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